तसिमन्नाद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्त: स कामी नीत्वा मासान् कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठ: ।
आषाढ़स्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ॥२॥
तस्य स्थित्वा कथमपि पुर: कौतुकाधानहेतो: अन्तर्बाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ ।
मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथाव्रत्ति चेत: कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे ॥३॥
धन्यवादार्ह:
महोदया भवत्या: प्रयास: प्रशंसनीय: अस्ति ।
दिनानि व्यतीतानि अहं मेघदूतं न पठितवान ।
सम्प्रति भवत्या: सहाय्येन तद् अपि सारल्येन एव भवति ।
स कामी नीत्वा मासान्
कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठ:।
आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श॥२॥
अर्थम:आषाढ़ के प्रथम दिवस,पर्वत पर रहने के कुछ मास उपरांत, प्रियतमा से बिछुड़े प्रेमी यक्ष की बाहँ से स्वर्ण-कंगन फिसल कर गिर पड़ा. यक्ष ने एक हाथी जैसे बड़े आकार के मेघ को देखा जो पर्वत की चोटी से लिपट कर आलिंगन कर रहा था.
तस्य स्थित्वा कथमपि पुर: कौतुकाधानहेतो: अन्तर्बाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ ।
मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथाव्रत्ति चेत: कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे ॥३॥
अर्थम:
यक्ष महाराजा द्वार दिया गया दंड भुगत ही रहा था, अब जब बादल को पर्वत-चोटी का आलिंगन करते देखा तो (स्व प्रेयसी की स्मृति में) उसकी व्यग्रता में वृद्धि होने लगी, और वह अंश्रु रोक न सका. अब बादल के समक्ष उसे खड़ा होना कठिन जान पड़ा.
अभिवादनम् ! आप का यह प्रयास मुझे भी उत्साहित कर रहा है कि मेघदूत की एक अप्रकाशित टीका, जिसके संपादन हेतु मैं प्रयत्नशील हूँ; को मैं नेट पर अपने ब्लाग में प्रस्तुत करूँ। पुनरपि आप अपनी इस यात्रा को गंतव्य तक अवश्य ले जावें।