श्री विष्णुकान्त जी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत सुन्दर चार पंक्तियाँ प्रस्तुत की थीं , अनवधान के कारण उन्होने इसे मूल लेख में लिख दिया था किन्तु चूँकि यह संस्कृतभाषा का ही पृष्ठ है अत: मूल लेख में हिन्दी का प्रयोग वर्जित होने के कारण मुझे इस लेख को हटाना पडा , पर ये पंक्तियाँ मैं यहाँ टिप्पणी पेटिका में रख रहा हूँ ।
भारती के भाव विह्वल आंसुओ की याचना है तुम कलम से विरह के अब गीत लिखना छोड़ दो हास्य की यह रितु नही है एक केवल कामना है , तुम चरण चारण की अपनी बात करना छोड़ दो. भ्रष्ट होते तन्त्र की ब्यथा पर अब कुछ लिखो , दर्द से होती तड़प की वेदना पर कुछ लिखो , चीर खोती द्रोपदी की नग्नता पर कुछ लिखो.. आतंक भ्रस्टाचार की इन गठरियों को खोल दो..
श्री विष्णुकान्त जी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत सुन्दर चार पंक्तियाँ प्रस्तुत की थीं , अनवधान के कारण उन्होने इसे मूल लेख में लिख दिया था किन्तु चूँकि यह संस्कृतभाषा का ही पृष्ठ है अत: मूल लेख में हिन्दी का प्रयोग वर्जित होने के कारण मुझे इस लेख को हटाना पडा ,
पर ये पंक्तियाँ मैं यहाँ टिप्पणी पेटिका में रख रहा हूँ ।
भारती के भाव विह्वल आंसुओ की याचना है
तुम कलम से विरह के अब गीत लिखना छोड़ दो
हास्य की यह रितु नही है एक केवल कामना है ,
तुम चरण चारण की अपनी बात करना छोड़ दो.
भ्रष्ट होते तन्त्र की ब्यथा पर अब कुछ लिखो ,
दर्द से होती तड़प की वेदना पर कुछ लिखो ,
चीर खोती द्रोपदी की नग्नता पर कुछ लिखो..
आतंक भ्रस्टाचार की इन गठरियों को खोल दो..
विष्णुकान्त जी को सादर धन्यवाद